बालाघाट जिले की प्राचीन मूर्तिकला कलात्मक
जिला बालाघाट प्राचीन काल में 6 वीं शती ई. में चेंदि जनपद के अंतर्गत रहा और वहीं से सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की धारा अवाधगति से चलती रही। प्राकृतिक सम्पदा, बहुमूल्य खनिजों, स्मारकों, बावली, किला, मंदिर, विभिन्न देवी-देवताओं की ध्यानाकर्षण प्रतिमाओं का उद्भव हुआ। इसी श्रृंखला में बालाघाट जिले के लांजी, बैहर, रामपायली, लामटा, उसके आसपास के क्षेत्रों में शैव, वैष्णव, गणेश, द्वार स्तंभ सिरदल त्रिस्तरीय शिल्पांकन, गरुड़ वाहन विष्णु, सूर्य, नाग-नागी का जोड़ा, द्वार स्तंभ (ब्राह्मा, विष्णु, महेश), नरसिंह, सती स्तंभ, सिंहदेव, शिव द्वार, यक्ष यक्षिणी, अश्वारोही, महिला यौद्धा, वीर यौद्धाओं की ढाल तलवार लिये हुए, शिल्प कृतियाँ, आकृति, मृदंग वादक आदि अनेकों श्रृंगारयुक्त मूर्ति व जैन संस्कृति के प्रत्यक्ष प्रमाण मिले है। राजवंश अपनी अप्रतिम कला के लिए विख्यात है। बालाघाट जिले के ग्रामीण अंचलों, खेत-खलिहानों, वृक्षों के नीचे, पर्वतों-पहाडों, तालाबों (कपड़े धोने में उपयोग कर रहा है) में भग्नावशेषों में यंत्र-तंत्र बिखरे हुए हैं, जो अपने युग में पुरातत्वीय इतिहास अतीत की कहानियाँ को प्रत्यक्ष रूप से उदाहरण परिदृश्यों में देखिए अधिकांशतः ! इस प्रकार यह जिला प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व की दृष्टि से समुद्धिशाली है। अनेक ऐसे स्थल है जहाँ उत्खनन कार्य करने पर अनगिनत मुद्राऐं, उत्कृष्ट नमूने तथा मूर्तियाँ प्राप्त हो सकती है, जिसे देखकर कर कलात्मक दृष्टि और परिष्कृत अभिरुचि के प्रमाण हो सकते है। इन सांस्कृतिक धरोहरों को शोधात्मक रुप से पहचान किया जा सकता है, क्योंकि कलचुरी, आदिवासी, मराठा, भौसला साम्राज्यों की मूर्तिकला की कलात्मक झलकियां प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। वर्तमान परिदृश्य में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में उनकी कला-कृतियों की अमूल्य अमृत धारा, संस्कृति-सभ्यता, खान-पान, रीति-रिवाजों की अपनी अलग ही पहचान है, जिनसे आकर्षित हुए बिना कोई नहीं रह पाता है। आज आधुनिकीकरण, तकनीकी व्यवस्थाओं में भी उपरोक्तांकित ऐतिहासिक धरोहरों को वृहद स्तर पर विकसित करने की आवश्यकता प्रतीत होती हैं।