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इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान संग्रहालय

संग्रहालय के बारे में

पुण्य सलिला वैनगंगा नदी के पावन तट पर बसा बालाघाट सुप्रसिद्ध एक ऐतिहासिक नगर है। इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान संग्रहालय, नगर के हृदय स्थल, पांच कोणों के संगम के पास स्थित है। मुख्य प्रवेश द्वार के मध्य गरुड़ वाहक विष्णु द्वार शाखा लगाया गया है। ऊपर सूर्य प्रतिमा स्थापित है, प्रथम दृष्टया ही दर्शकों को प्रभावित करता है। संग्रहालय परिसर की दीवार को किला नमूना बनाया गया है। संग्रहालय में स्थनीय प्रतिमाओं के पथ-प्रदर्शन के लिए स्थापित किया गया है।

भवन की दीवार तथा परिसर में पुरातात्विक महत्व की प्रतिमाओं को स्तंभ बनाकर पथ-प्रर्दशित किया गया है। परिसर के चारों ओर हरियाली विभिन्न प्रजातियों को रोपित सुसज्जित किया गया है। परिसर में ही नैरोगेज बोगी को स्थापित कर धरोहर जंक्शन नाम से अंकित किया गया है, यही बैल गाड़ी को स्थापित करने से बच्चों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है। जहां पर्यटक और शोधार्थी लाभांवित होते है।

बालाघाट जिले की प्राचीन मूर्तिकला कलात्मक

जिला बालाघाट प्राचीन काल में 6 वीं शती ई. में चेंदि जनपद के अंतर्गत रहा और वहीं से सभ्यता एवं संस्कृति के विकास की धारा अवाधगति से चलती रही। प्राकृतिक सम्पदा, बहुमूल्य खनिजों, स्मारकों, बावली, किला, मंदिर, विभिन्न देवी-देवताओं की ध्यानाकर्षण प्रतिमाओं का उद्भव हुआ। इसी श्रृंखला में बालाघाट जिले के लांजी, बैहर, रामपायली, लामटा, उसके आसपास के क्षेत्रों में शैव, वैष्णव, गणेश, द्वार स्तंभ सिरदल त्रिस्तरीय शिल्पांकन, गरुड़ वाहन विष्णु, सूर्य, नाग-नागी का जोड़ा, द्वार स्तंभ (ब्राह्मा, विष्णु, महेश), नरसिंह, सती स्तंभ, सिंहदेव, शिव द्वार, यक्ष यक्षिणी, अश्वारोही, महिला यौद्धा, वीर यौद्धाओं की ढाल तलवार लिये हुए, शिल्प कृतियाँ, आकृति, मृदंग वादक आदि अनेकों श्रृंगारयुक्त मूर्ति व जैन संस्कृति के प्रत्यक्ष प्रमाण मिले है। राजवंश अपनी अप्रतिम कला के लिए विख्यात है। बालाघाट जिले के ग्रामीण अंचलों, खेत-खलिहानों, वृक्षों के नीचे, पर्वतों-पहाडों, तालाबों (कपड़े धोने में उपयोग कर रहा है) में भग्नावशेषों में यंत्र-तंत्र बिखरे हुए हैं, जो अपने युग में पुरातत्वीय इतिहास अतीत की कहानियाँ को प्रत्यक्ष रूप से उदाहरण परिदृश्यों में देखिए अधिकांशतः ! इस प्रकार यह जिला प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व की दृष्टि से समुद्धिशाली है। अनेक ऐसे स्थल है जहाँ उत्खनन कार्य करने पर अनगिनत मुद्राऐं, उत्कृष्ट नमूने तथा मूर्तियाँ प्राप्त हो सकती है, जिसे देखकर कर कलात्मक दृष्टि और परिष्कृत अभिरुचि के प्रमाण हो सकते है। इन सांस्कृतिक धरोहरों को शोधात्मक रुप से पहचान किया जा सकता है, क्योंकि कलचुरी, आदिवासी, मराठा, भौसला साम्राज्यों की मूर्तिकला की कलात्मक झलकियां प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है। वर्तमान परिदृश्य में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में उनकी कला-कृतियों की अमूल्य अमृत धारा, संस्कृति-सभ्यता, खान-पान, रीति-रिवाजों की अपनी अलग ही पहचान है, जिनसे आकर्षित हुए बिना कोई नहीं रह पाता है। आज आधुनिकीकरण, तकनीकी व्यवस्थाओं में भी उपरोक्तांकित ऐतिहासिक धरोहरों को वृहद स्तर पर विकसित करने की आवश्यकता प्रतीत होती हैं।

डॉ वीरेंद्र सिंह
डॉ. वीरेंदर सिंह गहरवार संग्रहालयाध्यक्ष

पुरातात्विक महत्व की मूर्ति

गरुड़ आसीन विष्णु

गरूड़ासीन विष्णु अंकन युक्त सिरदल भाग

यह शिल्पन विष्णु को समर्पित मंदिर के गर्भगृह द्वार का अंलकृत सिरदल भाग (चन्द्रशिला) हैं। काले पत्थर से शिल्पाँकित द्वार सिरदल (चन्द्रशिला) मध्य में गरुड़ासीन चतुर्भुज विष्णु का अंकन हैं। द्वार सिरदल त्रिस्तरीय शिल्पांकन में हैं। निचला स्तर क्रम युग्मनागबल्ली शिल्पांकन से अंलकृत हैं। देव के दोनों ओर अंलकृत नागबल्ली का बाह्य छोर में बायीं ओर मुखाकृति दर्शित हैं। गरुड़ासीन विष्णु के दोनों ओर के मध्यक्रम में चार-चार उड़ते हुए, मालाधारी विद्याघरों का शिल्पांकन दर्शित हैं। चन्द्रशिला (द्वार सिरदल) के सबसे ऊपरी स्तर क्रम में देव के बायीं ओर मातृकाएँ तथा दायीं ओर नवग्रहों का शिल्पांकन हैं। जो खंडित व क्षरित अवस्था में हैं। गरुड़ासीन चतुर्भुज विष्णु का सिरोभाग अल्प खंडित क्षरित हैं। देव के बायीं ओर का ऊपरी कर भग्न हैं, शेष तीनों कर भी क्षरित हैं। गले में ग्रैवेयक, स्कंध में उपवीत धारण किये हैं। गरुड़ भी परम्परानुगत आमरणों युक्त हैं।

कला-शिल्पन की दृष्टि से यह द्वार सिरदल (चन्द्रशिला) का शिल्पांकन काल लगभग 9 वीं-10 वीं शती ई. का प्रतीत होता हैं। जो 112X36 से.मी. का हैं, बालाघाट नगर से 10/01/1988 को प्राप्त।

Ganesha Statue

गणेश प्रतिमा

गणेश चतुर्भुज प्रतिमा, खड़ी मुद्रा, मस्तक में, सिर बड़ा, उदर बाहर की ओर निकला हैं, दांत और हाथों की वस्तुऐं अस्पष्ट, सिर में मुकुट, गले में अंलकृत आभूषण, बलुआ पत्थर में निर्मित, काल लगभग 11-12 वीं शती ई. का प्रतीत होता हैं, जो 110X61 से.मी. का हैं। खंडित अवस्था में, बालाघाट नगर से 19/01/1988 को प्राप्त ।